काल अर्थात् समय मस्तिष्क की रचना मात्र है । यह कभी नहीं बदलता है । वास्तव में पदार्थ, स्थान और समय की कोई सत्यता नहीं है - अपनी पहचान नहीं है । महान वैज्ञानिक आइंस्टिन के अनुसार समय एवं दूरी की मान्यता भ्रामक एवं अवास्तविक है । जो कुछ दिखाई देता है वह खोखला आवरण मात्र है । हमारे नेत्र और मस्तिष्क अपनी बनावट और अपूर्ण संरचना के कारण वह सब देखता है जो हमें यथार्थ लगता है लकिन होता कुछ और है । समय न तो कम होता है और न ज्यादा होता है । यह तो बस ‘है’ -स्थिर है । इसका बड़ा या छोटा होना हमारी गति पर निर्भर है । अगर गति बढ़ती है तो समय कम लगता है । जैसे 100 साल पहले 100 किलोमीटर की यात्रा कई दिनों में होती थी । परंतु आज यह कई घंटों मे हो जाती है क्योंकि हमारी गति तकनीकी विकास के साथ बढ़ गई है और समय छोटा या कम लगने लगा है । जर्मन गणितज्ञ तथा दर्शन शास्त्री लेबनीज़ (Leibniz) का भी मानना है कि काल हमारी कल्पना मात्र (Figments of imagination) है । यह वास्तविक नहीं है परंतु दूसरे जर्मन दार्शनिक इमेनूअल कैंट (I. Kant) जो केवल कारण और औचित्य की बातें करते थे, उनका मानना है कि काल वास्तविक है (Time is real)। जो भी हो अगर हम संसार को वास्तविक समझते है तो समय भी वास्तविक है और अगर यह संसार अवास्तविक है तो समय भी अवास्तविक है ।
समय तथा संसार की उत्पत्ति के विषय में भी विभिन्न धारणायें है यथा स्टीफन हॉकिंग ने ‘द बिगिनिंग ऑफ़ टाइम’ में कहा है-यह ब्रह्माण्ड हमेशा से नहीं है। इस ब्रह्माण्ड तथा काल की उत्पत्ति 15 बिलियन साल पहले बिग बैंग से हुई। अतः बिग बैंग से पहले काल था या नही यह एक अर्थहीन प्रश्न है क्योंकि जो भौतिक वैज्ञानिकों के लिये अपरिमेय है वह आस्तित्व में नहीं है। परंतु आईंस्टिन ने कहा कि जो समय हम भौतिक वैज्ञानिकों के लिए अपरिमेय है वह हमारे लिये उपयोगी नहीं है । आधुनिक वैज्ञानिक यह मानते है कि बिंग बैंग से ही सृष्टि तथा समय की उत्पत्ति हुई परंतु उससे पहले समय था या नही इसके बारे में कुछ निश्चित रूप से कहने की स्थिति में नही है । परंतु भागवत महापुराण में इसे इस तरह कहा गया है -
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम् ।
पश्चादहं यदेतच्च यो अवशिष्येत् सो अस्म्येहम् ।।
सृष्टि के पूर्व केवल मैं-ही-मैं था । मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न दोनों का कारण अज्ञान था । जहाँ यह सृष्टि नहीं है, वहाँ मैं-ही-मैं हूँ और इस सृष्टि के रूप में जो कुछ प्रतीत हो रहा है वह भी मैं हूँ और जो कुछ बचा रहेगा, वह भी मैं ही हूँ ।
ऋग्वेद की ऋचायें भी यही संकेत करती हैं -
हिरण्य गर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् ।
सदाधार पृथ्वीम् द्यामुतेमाम् कस्मै देवाय हविषा विधेम् ।।
(ऋग्वेद अध्याय 8)
अर्थात् जो परमेश्वर सृष्टि से पहले ही था, जो इस जगत का स्वामी है वही पृथ्वी से लेकर सूर्यपर्यन्त सभी जगत को रचकर धारण कर रहा है । इसलिए उसी सुख स्वरूप परमेश्वर की ही हम उपासना करें अन्य की नहीं ।
सारांशतः सर्वातीत एवं सर्वस्वरूप भगवान ही सर्वदा और सर्वत्र स्थित है वे ही वास्तविक तत्व हैं ।
जब हम अपने को समय से ऊपर उठकर देखते हैं तो हमें मस्तिष्क की चेतना के अतिरिक्त कुछ नहीं दिखाई देता तब हमारा व्यक्तित्व अलग तरह का हो जाता है -हम विचार या अनुभूति हो जाते हैं । ऐसी कल्पना तभी हो सकती है जब हम विचार और केवल विचार ही हो जायें । अर्थात् गीता के ‘आत्मन्येवात्मना तुष्टः’ अपने आप से आप में ही संतुष्ट हो जायें अर्थात् स्थितप्रज्ञ हो जायें । मूलतः काल तो सर्वथा अविभाज्य सूक्ष्म तत्व है, अमूर्त होता है । परंतु व्यवहार की सिद्धि के लिये काल का विभाजन किया जाता है । एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक के काल से मनुष्य के अहोरात्र (दिन-रात) का निर्धारण होता है । इसी अहोरात्र का सूक्ष्मतम विभाजन करके काल-गणना का श्रीगणेश होता है। पुराणों के आधार पर मनुष्य के एक अहोरात्र को सूक्ष्मातिसूक्ष्म अंशों में विभाजित करने का क्रम बड़ा ही वैज्ञानिक है । श्रीमद्भागवत में बताया गया है कि दो परमाणु (समवाय-सम्बन्ध से) संयुक्त होकर एक ‘अणु’ होता है और तीन अणुओं के मिलने से एक ‘त्रसरेणु’ बनता है, जिसे झरोखे में से होकर आयी हुई सूर्य की किरणों के प्रकाश के माध्यम से आकाश में उड़ते हुए देखा जा सकता है । ऐसे तीन त्रसरेणुओं को पार करने में सूर्य की किरणों को जितना समय लगता है, उसे ‘त्रुटि’ कहते हैं । इससे सौ गुना काल ‘वेध’ कहलाता है । और तीन ‘वेध’ का एक‘लव’ होता है । तीन ‘लव’ को एक ‘निमेश’ और तीन निमेश को एक ‘क्षण कहता हैं । इसे इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है -
1 त्रुटि - 3 त्रसरेणुओं को पार करने में सूर्य की किरणों द्वारा लिया गया समय
100 त्रुटि - 1 वेध
3 वेध - 1 लव
3 लव - 1 निमेष
3 निमेष - 1 क्षण
15 निमेष - 1 काष्ठा
30 काष्ठा - 1 कला
15 कला - 1 नाडिका
30 कला - 1 मुहूर्त (2 नाडिका)
(कहीं कहीं 30.3 कला = 1 मुहूर्त)
30 मुहूर्त - 1 दिन-रात
30 दिन-रात - 1 मास
2 मास - 1 ऋतु
3 ऋतु - 1 अयन
2 अयन - 1 वर्ष
24 घंटा = 30 x30.3x 30x15 निमेश = 86,400 सेकेण्ड
1 निमेश =0.21122112211 सेकेण्ड
ऐसे 100 वर्षों को मनुष्य की परमायु बताया गया है.
मनुष्यों के मानसे जो एक वर्ष है, वह देवताओं का एक अहोरात्र (दिन-रात) है । उत्तरायण देवताओं का दिन है और दक्षिणायन देवताओं की रात्रि । तात्पर्य यह है कि मकर-संक्रान्ति से मिथुन-संक्रान्ति के अन्त तक सूर्य के रथ की किरणों और अक्षांश की किरणों के प्रतिदिन ध्रुव की ओर खिंचते रहने से उत्तर की ओर चलने वाला सूर्य मेरूपर्वत के शिखर पर रहने वाले देवताओं को दिखता रहता है, अतः उत्तरायण देवताओं का दिन होता है तथा कर्क-संक्रान्ति से धनु-संक्रांति के अंत तक उन दोनों प्रकार की किरणों के ध्रुव को प्रतिदिन क्रमशः छोडते रहने से दक्षिण की ओर चलता हुआ सूर्य देवताओं को नहीं दिखता, अतएव दक्षिणायन देवताओं की रात है । इस प्रकार तीन सौ साठ मानवी वर्ष का एक दिव्य वर्ष अर्थात् देवताओं के एक वर्ष के बराबर होते हैं । मानवीमान से बारह मास का एक वर्ष होता है, देवलोक में यही एक दिन-रात होता है । ऐसे तीन सौ साठ वर्षों का देवताओं का एक वर्ष होता है-
दिव्य वर्षों एवं मानुष वर्षों में एक चतुर्युग का मान
सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग से मिलकर एक चतुर्युग बनता है । बारह हजार दिव्य वर्षों का एक चतर्युग होता है । इसको मानुष वर्ष बनाने के लिये तीन सौ साठ का गुणा करना पड़ेगा जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि एक चतुर्युग में तैंतालिस लाख बीस हजार मानुष वर्ष होते हैं । इसे इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है-
3 वेध - 1 लव
3 लव - 1 निमेष
3 निमेष - 1 क्षण
15 निमेष - 1 काष्ठा
30 काष्ठा - 1 कला
15 कला - 1 नाडिका
30 कला - 1 मुहूर्त (2 नाडिका)
(कहीं कहीं 30.3 कला = 1 मुहूर्त)
30 मुहूर्त - 1 दिन-रात
30 दिन-रात - 1 मास
2 मास - 1 ऋतु
3 ऋतु - 1 अयन
2 अयन - 1 वर्ष
24 घंटा = 30 x30.3x 30x15 निमेश = 86,400 सेकेण्ड
1 निमेश =0.21122112211 सेकेण्ड
ऐसे 100 वर्षों को मनुष्य की परमायु बताया गया है.
मनुष्यों के मानसे जो एक वर्ष है, वह देवताओं का एक अहोरात्र (दिन-रात) है । उत्तरायण देवताओं का दिन है और दक्षिणायन देवताओं की रात्रि । तात्पर्य यह है कि मकर-संक्रान्ति से मिथुन-संक्रान्ति के अन्त तक सूर्य के रथ की किरणों और अक्षांश की किरणों के प्रतिदिन ध्रुव की ओर खिंचते रहने से उत्तर की ओर चलने वाला सूर्य मेरूपर्वत के शिखर पर रहने वाले देवताओं को दिखता रहता है, अतः उत्तरायण देवताओं का दिन होता है तथा कर्क-संक्रान्ति से धनु-संक्रांति के अंत तक उन दोनों प्रकार की किरणों के ध्रुव को प्रतिदिन क्रमशः छोडते रहने से दक्षिण की ओर चलता हुआ सूर्य देवताओं को नहीं दिखता, अतएव दक्षिणायन देवताओं की रात है । इस प्रकार तीन सौ साठ मानवी वर्ष का एक दिव्य वर्ष अर्थात् देवताओं के एक वर्ष के बराबर होते हैं । मानवीमान से बारह मास का एक वर्ष होता है, देवलोक में यही एक दिन-रात होता है । ऐसे तीन सौ साठ वर्षों का देवताओं का एक वर्ष होता है-
दिव्य वर्षों एवं मानुष वर्षों में एक चतुर्युग का मान
सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग से मिलकर एक चतुर्युग बनता है । बारह हजार दिव्य वर्षों का एक चतर्युग होता है । इसको मानुष वर्ष बनाने के लिये तीन सौ साठ का गुणा करना पड़ेगा जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि एक चतुर्युग में तैंतालिस लाख बीस हजार मानुष वर्ष होते हैं । इसे इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है-
ब्रह्मा जी की आयु
पुराणों के अनुसार ब्रह्मा के एक दिन में एक हजार चतुर्युग होते हैं, जिनका सम्पूर्ण मान एक कल्प कहलाता हैं इतनी ही बड़ी अर्थात् एक हजार चतुर्युगियों की ब्रह्मा की एक रात्रि भी होती है । कल्पका क्रम तब तक चलता रहता है, जबतक ब्रह्मा का दिन रहता हैं त्रिलोकी से बाहर मर्हलोक से ब्रह्मलोकपर्यन्त यहाँ की एक सहस्त्र चतुर्युगी का एक दिन होता है और इतनी ही बड़ी रात्रि होती है, जिसमें जगत्कर्ता ब्रह्मा शयन करते हैं । उस रात्रि का अन्त होने पर इस लोक का कल्प आरम्भ होता है, उसका क्रम जबतक ब्रह्मा का दिन रहता है, तबतक चलता रहता है । उस एक कल्प में चौदह मनु हो जाते हैं । प्रत्येक मनु इकहत्तर चतुर्युगी से कुछ अधिक काल (71-6/14 चतुर्युगी) तक अपना अधिकार भोगता है ।
उक्त मानसे ब्रह्मा की परमायु उनके कालमान से सौ वर्ष होगी । इस आधार पर ब्रह्मवर्ष गणना को यूं चरणबद्ध लिखा जा सकता है.
पुराणों के अनुसार ब्रह्मा के एक दिन में एक हजार चतुर्युग होते हैं, जिनका सम्पूर्ण मान एक कल्प कहलाता हैं इतनी ही बड़ी अर्थात् एक हजार चतुर्युगियों की ब्रह्मा की एक रात्रि भी होती है । कल्पका क्रम तब तक चलता रहता है, जबतक ब्रह्मा का दिन रहता हैं त्रिलोकी से बाहर मर्हलोक से ब्रह्मलोकपर्यन्त यहाँ की एक सहस्त्र चतुर्युगी का एक दिन होता है और इतनी ही बड़ी रात्रि होती है, जिसमें जगत्कर्ता ब्रह्मा शयन करते हैं । उस रात्रि का अन्त होने पर इस लोक का कल्प आरम्भ होता है, उसका क्रम जबतक ब्रह्मा का दिन रहता है, तबतक चलता रहता है । उस एक कल्प में चौदह मनु हो जाते हैं । प्रत्येक मनु इकहत्तर चतुर्युगी से कुछ अधिक काल (71-6/14 चतुर्युगी) तक अपना अधिकार भोगता है ।
उक्त मानसे ब्रह्मा की परमायु उनके कालमान से सौ वर्ष होगी । इस आधार पर ब्रह्मवर्ष गणना को यूं चरणबद्ध लिखा जा सकता है.
इस समय ब्रह्मा जी अपनी आयु का आधा भाग अर्थात् 1 परार्ध (50 वर्ष) बिताकर दूसरे परार्ध में चल रहे हैं। यह उनके 51वें वर्श का प्रथम दिन या कल्प है । ब्रह्मा के प्रथम परार्ध में कल्पों की गणना रथन्तर कल्प से होती है, परंतु ब्रह्मा के द्वितीय परार्ध के आदि का कल्प श्वेत्वराह्कल्प होता है । अतः वर्तमान कल्प को श्वेत्वराह्कल्प कहा जाता है यह द्वितीय परार्ध का प्रथम कल्प है । इस कल्प के चौदह मन्वन्तरों में 6 मन्वन्तर व्यतीत हो चुके हैं । वर्तमान में सप्तम वैवस्वत मन्वन्तर के 27 चतुर्युग बीत चुके है और 28वें महायुग के सत्य, त्रेता, द्वापर बीतकर 28वां कलियुग चल रहा है ।
इन मन्वन्तरों का समय बीत जाने पर सृष्टि में प्रलय होता है, जो अवान्तर या पार्थिव प्रलय कहलाता है । चौदहों मन्वतन्तरों का पूर्ण समय एक कल्प के बराबर होता है । इस कल्प के अन्त में होने वाला प्रलय नैमित्तिक, दैनन्दिन या कल्प-प्रलय कहलाता है । ब्रह्मा की आयु के दोनों परार्धों की समाप्ति पर प्राकृतिक महाप्रलय होता है, जिसमें सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का लय होता है । तदनन्तर समस्त ब्रहमाण्ड का पूर्ण ब्रह्म परमात्मा में लय होता है, जो आत्यन्तिक प्रलय कहलाता है । पुनः काल, कर्म और स्वभाव से उस निराकार से साकार सृष्टि की उत्पत्ति होती है । यही सृष्टि और प्रलय का क्रम अनादिकाल से चला आ रहा है ।
Courtesy: THE UNIVERSE, ITS WAY PAST, AND ITS WAY FUTURE - Sarah Scoles |
काल की आधुनिक इकाई
पॉप ग्रेगरी XIII ने सन् 1582 में सोलर कलैण्डर को लागू किया और इसे पूरे संसार में मान्यता मिली । यह सबसे ज्यादा प्रचलित कलैण्डर है । आधुनिक समय में काल की सबसे छोटी इकाई ‘प्लांक टाइम’ माना जाता है इसके अनुसार सूर्य की किरणों को ‘एक प्लांक दूरी’ पार करने में जो समय लगता है उसे प्लांक टाइम माना जाता है । 1 प्लांक दूरी = 1.616199x10-35 मीटर । आधुनिक समय की सूक्ष्म से सूक्ष्म तथा वृहत्तर काल गणना का परिमाण निम्न प्रकार है:
पुराणोक्त तथा आधुनिक काल गणना विज्ञान पर विचार करने से पता चलता है कि पुराणोक्त काल गणना विज्ञान का सूक्ष्मतम काल ‘त्रुटि’ है जो 0.00023469013 सेकेन्ड के बराबर होता है तथा महत्तम काल = ब्रह्मा जी की परमायु = 1 पर =31,10,40,00,00,00,000 मानवी वर्ष है । इसके बाद प्राकृतिक महाप्रलय होता है जिसमें ब्रह्मा जी का भी लय हो जाता है तथा समस्त ब्रह्माण्ड का भी पूर्ण परब्रह्म परमात्मा में लय होता है जो आत्यन्तिक प्रलय कहलाता है । सभी साकार सृष्टि का निराकार में लय हो जाता है । परंतु ब्रह्मा जी की रात्रि बीतने पर फिर इस मानव लोक का अगला कल्प शुरू होता है । नये ब्रह्मा आते है नये मन्वन्तर आते हैं इसका विषद वर्णन हरिवंश पुराण में भी दिया गया है । अतः पुराणोक्त काल विज्ञान में काल की अवधारणा चक्रीय है क्योंकि जिस तरह से 1 दिन-रात में सूर्य के उदय या अस्त की पुनरावृत्ति होती है उसी तरह 1 महीने, 1 साल में भी होता है और 1 युग, 1 चतुर्युग तथा ब्रह्मा जी की परमायु के बाद भी मानी गई है । परंतु आधुनिक काल गणना विज्ञान में इस तरह की पुनरावृत्ति का अभाव है । आधुनिक काल-गणना विज्ञान के अनुसार 1 प्लांक समय =5.39 x 10-44 सेकण्ड को सूक्ष्मतम समय माना गया है परंतु महत्तम काल अर्थात् इस सृष्टि के अन्तिम समय के बारे में कुछ गणना कर नहीं बताया गया है ।
सृष्टि का आरंभ तो बिग बैंग अर्थात् 15 बिलियन साल पहले माना गया है परंतु अंत होने के समय के बारे में कुछ नहीं बताया गया है तथा इसमें काल की अवधारणा चक्रीय नही अपितु रेखीय ही है । इसमें बिग बैंग से पहले काल का स्वरूप क्या था तथा सृष्टि के अन्त के बाद क्या होगा इसके बारे में कोई निश्चित अवधारणा नही है । परंतु पौराणिक काल गणना विज्ञान के अनुसार आत्यंतिक प्रलय के बाद नई सृष्टि की बात कही गई है तथा इसके पुनरावृत्ति की बात कहकर यह संकेत दिया गया है कि जिस तरह सब कुछ ब्रह्म से ही उत्पन्न हुआ है तथा ब्रह्म में ही लय होगा तो समय या काल भी ब्रह्म से ही उत्पन्न हुआ है तथा ब्रह्म में ही लय होगा । अतः काल का भी आदि और अन्त नही है अर्थात् यह अनादि तथा अनन्त है क्योंकि चक्र में किसी बिन्दु को न तो आदि माना जा सकता है और न तो अन्त । यह चक्र अनवरत चलता रहेगा । अर्थात् सृष्टि के पहले भी ब्रह्म है सृष्टि में भी ब्रह्म है इसके बाद भी ब्रह्म ही रहेगा ।
मधुरिता झा
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